मचलता दरिया पत्थरों की गोद में ऐसा लगता है,
उमड़ते आते हैं मेरे ख़यालात तेरे विसाल में जैसे,
तेरी दीद को हुई मुद्दत लेकिन ख़ाब तेरे बुनता हूँ,
और यूंही कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है।
गुज़रती तो होगी तुम आज भी उन गलियों से,
जिन से गुज़रा था जनाज़ा हमारी मोहब्बत का,
क्या तलाशती भी हो मेरे क़दमों के निशां उनमें,
या बस कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है।
ज़मीं पर या सितारों में खो गयी हो क्या कहीं,
मेरी जो उम्मीदें थीं वो क्या ग़लत थीं कि सही,
या फिर मैं तेरा और तुम मेरी कभी थीं ही नहीं,
ऐसे ही कभी कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है।